बुधवार, 17 अप्रैल 2013

राग दरबारी और मालकोश की जुगलबंदी

ज़्यादातर संगीत-प्रेमी जानते होंगे कि इन दोनों रागों का संगीत में अपना अलग-अलग महत्व है। यह ज़रूर है कि बदलते वक्त के मिज़ाज के साथ इनके विलंबित और द्रुत लय में आधुनिक संगीतकारों ने बदलाव लाने की पुरज़ोर कोशिश की है। वैसे पहले विलंबित और बाद में द्रुत गाया जाता रहा है। ज़माना ही कुछ ऐसा आ गया है कि हर चीज़ घासलेटी हो गई है। आज के डुप्लीकेट टेक्निकल संगीतकारों ने दोनों रागों को इस तरह तोड़-मरोड़ कर पेश करने की जुगत भिड़ाई है कि उन्हे राग दरबारी से दरबार में सुनहरी कुर्सी हासिल हो सके और फिर राग मालकोश गा कर माल का कोष यानी मालामाल हो सकें।
इसमें कोई शक नहीं कि पहले की गायकी से अधिक रियाज़ आजकल के तथाकथित संगीतज्ञ करते हैं पर मक़सद ज़ुदा-ज़ुदा होते हैं। आजकल रिवाज़ यह निकल पड़ा है कि सत्ता के संगमरमरी गलियारे से गुज़रते हुए किसी माननीय को गंडा बांध कर दरबार तक पहुंचने का प्रयास किया जाता है जहाँ वे ‘राग दरबारी’ पर गला साफ करते हुए ‘मालकोश’ पर रियाज़ मारना शुरू कर देते हैं। अब तो भाई ‘झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया’ के बोल के साथ चेलाही करना लोग पहले पसंद करते हैं। आजकल साज़-आवाज़ से ज़्यादा दरबारी होना बहुत ज़रूरी होता है। जिसने भी किसी को उस्ताद मान कर गंडा बांध दिया तो उसके लिए गुंडई भी करना पड़े तो कोई  बात नहीं है क्योंकि आजकल गुरु–चेला में सब चलता है। इस राग में महारत हासिल करने के बाद अगर आज सत्ता की गगनचुंबी इमारतों में अवतरित हुए पुराने राजे-महाराजाओं के नए रूप प्रसन्न हुए तो फिर ऐसे दरबारी संगीतज्ञों को अपने नवरत्नों (कैबिनेट) में शामिल करने से कोई रोक नहीं सकता है। बहुत खुश होने पर लाल, नीली, पीली बत्तियों से जगमग करती कीमती गाड़ियों की चमचमाती चाभी थमा देते हैं। मानना पड़ता है कि राग-दरबारी के कद्रदान आज पहले से ज़्यादा हैं।

कहते हैं कि साहित्य और संगीत किसी युग के आईने होते हैं। संगीत सम्राट तानसेन और बैजू रहे होंगे अपने ज़माने के दरबारी और मालकोश के धुरंधर लेकिन अपने किसी भाई-भतीजे को कोई लिफ्ट  नहीं दिया। आज के क्या कहने? किसी को किसी दरबार के किसी कोने में टूटे तार वाले तानपुरे के साथ राग दरबारी सुनाने का मौका मिला नहीं की उसने अपने भाई-भतीजों को किसी माने हुए उस्ताद की चेलाही करने के लिए गंडा बँधवा दिया। 

सुना है कि तानसेन के गाने पर दीपक जल उठते थे लेकिन आज के संगीतकारों के गाने पर जलते हुए दिये बुझ जाते हैं और जहाँ बैजू के संगीत मधुर से पत्थर भी पिघल कर पानी-पानी कर देते थे वहीं आज पानी जम कर पत्थर बन जाते हैं।

अब तो तानसेन, बैजू और बड़े गुलाम अली खाँ साहब का ज़माना सिर्फ सुनने-सुनाने भर के लिए रह गया है।वरना तो चश्मदीद गवाह हैं कि संगमरमरी सत्ता के दिलकश दीवारों के बीच राग दरबारी की तान छेड़ने वाले।

मानना पड़ता है की ज़माना बदलता है तो सबकुछ बदल जाता है, राग-रागनियां बदल जाती हैं और कलाकार बदल जाते हैं। नमूना हाज़िर है, उस वक्त तबला-सारंगी वगैरह थे पर आज टीन-कनस्टर के बजते ही लोग ठुमके लगाने के लिए मचल उठते हैं। हुज़ूर इसमें कोई हैरत नहीं होना चाहिए, पुराने लोगों को याद होगा कि उधर सारंगी बजी नहीं कि “अख्तरी” की ठुमरी ठुमक उठती थी मगर बदलते वक्त के मिज़ाज ने जनाब मेहँदी हसन, गुलाम अली और जगजीत सिंह को मजबूर कर दिया था कुछ तरमीम करने के लिए। ख्याल कीजिये ज़रा कुछ हट कर कि अब्राहम लिंकन ने प्रजातन्त्र का जो राग अपने ज़माने में अलापा था क्या अपने भारत महान में उसी धुन में गाया जा रहा है? बस वही हाल अपने राग दरबारी और राग मालकोश का है। मतलब यह कि जुगाड़ भिड़ा कर किसी तरह दरबार में पंहुच बनाईये फिर तो अपने आप माल का कोष बन ही जाएगा। लोगों में रुतबा बढ़ जाएगा। फिर कोष को चाहे दुबई में जमा कीजिये या किसी स्विस बैंक में। इसमें कोई शक नहीं है कि लोगों की काबलियत मे दिन पर दिन इजाफा होता जा रहा है। मौजूदा वक्त के मुताबिक राग दरबारी और राग मालकोश के मतलब भी बदल गए हैं। दरबारियों के तलुए चाटते हुए ही आज राग दरबारी में महारत हासिल की जाती है और इसके बाद तो जनाब मालकोश आप की थैलियों में बज़ता सुनाई पड़ेगा। अलबत्ता थोड़ी मशक्कत करनी होगी। छोटे- बड़े उस्तादों के आगे-पीछे चक्कर काटना पड़ेगा भाई। हाँ, थोड़ा शीन-क़ाफ से ज़ुबान को मांजना पड़ेगा। फिर देखिए अपना जलवा। आप के राग दरबारी से बड़े-बड़े दरबारी खुद ‘वाह-वाह’ कर उठेंगे। उसके बाद तो तिजोरी के ढक्कन के थाप पर अपने-आप राग मालकोश पर वही नामचीन दरबारी साथ देते हुए झूम उठेंगे “मन तड़पत मनी दर्शन को आज”। इन रागों पर आधारित आउट आफ डेट बेमतलब गानों को मीरसाहब की ज़ुबानी आज के माहौल मे किनारीदार धोती में बांध कर कहीं खूंटी पर टांग देना चाहिए।

हैरत तो मियाँ अंगूठा छाप अपने लख्तेजिगर रमफेरवा को देख कर होती है कि आजकल वह भी राग दरबारी और मालकोश पर खूब रियाज़ मार रहा है। बेलौस कहता है कि आज के ज़माने में जिसने दरबारी बन कर माल का कोष बनाना नहीं सीखा, उसका अगला जन्म श्योर-शाट तिलचट्टे या ख़नखजूरे का होगा।

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