बुधवार, 4 जून 2014

‘माँ…’ | Maa... | Mother...

माँ, माई, मैय्या, माता के साथ जुड़ी ममता। अर्थात सम्पूर्ण जगत। ममता का महासागर। स्नेह की सहस्त्रधारा। कदमों में जन्नत की बेपनाह खुशी। अनगिनत सिंहासनो का असीमित सुख उसकी गोद। ऐसी माँ के रूप का वर्णन करने के लिए यदि तमाम आकाशगंगाओ को शब्द-रूप में लिख दिया जाय तो भी नहीं किया जा सकता है। नहीं भूल सकता हूँ उस परम-पवित्र माँ के लिए लिखी गई इन पंक्तियों को:

वह आंखें क्या आंखें हैं, जिसमे आँसू की धार नहीं,
वह दिल पत्थर है, जिस दिल में माँ का प्यार नहीं।

आज अपने जीवन के 77वें बसंत को पार करते हुए जब कभी बड़ी शिद्दत से अपनी माई या माँ को याद करता हूँ तो आज भी अपने को घुटुरन चलत रेनु तनु मंडित अनुभव करके आल्हादित हो उठता हूँ। जैसा उनका नाम कौशिल्या था। उसी प्रकार उनका स्वभाव भी था। उनमें मेरी समझ से यशोदा और कौशिल्या का मिला-जुला रूप था। यद्द्पि शिक्षा तो न के बराबर थी किन्तु मेरी तालीम पर जितना पिताजी का ध्यान होता था उससे कहीं अधिक माँ का हुआ करता था। कहने को तो मैं इकलौता पुत्र था और तीन बच्चों की मौत के बाद बदकिस्मती के साये में मेरा जन्म हुआ था। अपनी पवित्र माँ के अमृत समान दूध में जहां मुझे प्रेम और सद-व्यवहार की पौष्टिकता भरी मिठास मिली वहीं उनके मार्गदर्शन से जीने की एक नई राह मिली।
कहते हैं कि अक्सर इकलौता बेटा अधिक दुलार-प्यार पा कर नालायक हो जाता है किन्तु धन्य हूँ मैं, कि ऐसी महान माता की पवित्र कोख से जन्म लिया जिसने मुझे कलियुग में सत्ययुग, त्रेता और द्वापर का मिला-जुला संस्कार दिया। इस संबंध में बता दूँ कि प्रात:काल माँ मुझे साथ लेकर पूजा करती थीं और सायंकाल पिताश्री के साथ संध्योपासना में बैठना पड़ता था। बस छूट इतनी होती थी कि भले मैं दस मिनट बैठूँ किन्तु उनके साथ बैठना अनिवार्य था। उसी संस्कार ने मेरे मन में अनुशासन आस्था और अपनत्व की भावना जाग्रत की। मेरे एहसास ने यक़ीन की आँखें खोल दीं कि बालक के चरित्र-निर्माण में माता की भूमिका अहम होती है।

मुझे बताया गया कि मै बचपन में बहुत जिद्दी स्वभाव का था। मई-जून की तपती दुपहरिया में, कटकटाती सर्दी तथा झमाझम बरसते पानी में माँ से कहता था मुझे बाहर लेकर बैठो। मरती क्या न करती एकमात्र जिगर के टुकड़े के लिए धूप-बतास सब हँसते-हँसते सहन करने को तैयार रहती। तब तो नहीं, क्योंकि लड़कपन खेल में बीता, जवानी नींद भर सोया, बुढ़ापा देख के रोया अब ज़िंदगी कि आखिरी दहलीज़ पर पहुँचने के बाद माँ के उस अगाध प्यार और बेपनाह त्याग को याद कर-कर के सोचता हूँ कितनी होती है प्यारी, कितनी होती है भोली माँ।  ऐसी त्याग-तपस्या की प्रतिमूर्ति माँ का बदला कोई किसी जन्म में नहीं चुका सकता है। हाय, वह मंज़र। भूखे-प्यासे दरवाज़े पर घंटों खड़े रह कर अपने लाडले का स्कूल से लौटने का इंतज़ार करना। मेरे इम्तिहान के समय मेरे साथ रात के दो-दो बजे तक जागना और सुबह फिर पाँच-छ बजे तक उठा कर खुद घरेलू काम में जुट जाना कम बात नहीं थी। उनकी दयालुता के चर्चे मोहल्ले भर में प्रसिद्ध थे। घर में झाड़ू-पोंछा लगाने वाली से लेकर दर्ज़ी-धोबी तक को बिना चाय-पान कराये जाने नहीं देतीं थीं। आज माँ के उस कठिन परिश्रम को याद करते हुए इन पंक्तियों में उत्तर पाता हूँ:

जान लिया मैंने  रहस्य  अब
क्यों जप करती रहती   हो !
मुझे शतायु बनाने  को ही
यह दुख प्रतिफल सहती हो !!

सचमुच, इसीलिए सभी धर्मों और सभ्यताओं में माँ को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। कभी-कभी ख़्याल आता है कि जब परिवार की पालनहार एक माँ इतनी ममतामयी है तो अखिल ब्रह्मांड की पालनहार माँ कैसी होगी? दया की श्रोत और ममतारूपी मानसरोवर।

आज मैं जब अतीत की गहराइयों में झाँकता हूँ तो आश्चर्य होता है की एक अनपढ़ माँ के दिल में साहित्य के प्रति इतनी रुझान कैसे आई कि उसने अपने बेटे को कुछ लिखने की प्रेरणा दी। मैं तो यही सोचता हूँ कि उस रूप में माँ सरस्वती स्वयं मेरे गरीब परिवार में अवतरित हुई थीं। लोग भले इस पर यक़ीन न करें किन्तु विनम्र निवेदन है कि इसे कोई अतिशयोक्ति न समझे। यक़ीन मानिए ! उन दिनों मैं क्लास सात-आठ का छात्र था। मुझे पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस (प्रथम स्वतन्त्रता दिवस) के सुअवसर पर विद्यालय-पत्रिका के लिए लेख लिखने को दिया गया था भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ। पिताजी की नज़र में वह फालतू काम था जबकि पिताजी खुद अपने समय के एक अच्छे लेखक एवं नौटंकी शैली के बेहतरीन कलाकार रह चुके थे। पर उनका कहना था कि पहले तालीम पूरी करने के बाद दूसरी तरफ ध्यान देना है। माँ की जानदार दलील होती थी कि बालपन से ही किताबी तालिम के साथ रुचि के अनुसार रियाज़ भी चलना चाहिये वरना बालक की प्रतिभा अवरुद्ध हो जाती है। मुझे याद है कि सन उनीस सौ बासठ में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया था। नेशनल कैडेट कोर के सी सर्टिफिकेट पास कैडेटों को वरीयता के साथ इमरजेंसी कमीशन देने के लिए डिफेंस अकादमी देहरादून भेजा जाने लगा। उनमें मैं भी माँ के आशीर्वाद से एक था। किन्तु सेना मे जाने की बात सुन कर अपनी माता जी के आँख से आँसू नहीं थम रहे थे। सकुशल पास आउट होने के बाद जब पोस्टिंग होने लगी तो आर्मी हेड-क्वार्टर से सूचना दी गई कि मेरी आयु 13 दिन ओवर है इसलिए पोस्टिंग नहीं दी जा सकती। देश-सेवा का जज़्बा रखने वाले एक युवा के लिए तो सामने से परोसी गई भोजन की थाली खींच लेना जैसा हुआ। मेरे बैच के  पास-आउट हुए साथियो को भी बहुत दुख हुआ। किन्तु मेरी माता-श्री को तो जैसे मांगी मुराद मिल गई हो। मैं यहां एक बात की चर्चा करना भूल गया। उन दिनों किसी फिल्म का एक गीत मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे बहुत प्रसिद्ध हुआ था। जब भी माँ वह गीत रेडियो पर सुनती और मुझे फुल सैनिक-यूनिफ़ार्म मे देखती तो बस फूट-फूट कर रोना शुरू कर देती। कभी-कभी तो मेरा भी दिल भर आता। बहुत मंथन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि एक माँ का रोना दूसरी माँ से देखा नहीं गया होगा। उस जगत-जननी माँ ने एक ओर मेरी भी साध पूरी कर दी और दूसरी ओर एक माँ की ममता का भी ध्यान रखा। अनुशासन में परिपक्वता का श्रेय मैं अपनी माता को ही देता हूँ। कोटिश: धन्यवाद माँ। वास्तव में तुम एक महान शिक्षिका थी। प्यार-प्यार में मुझे जीने के काबिल बना दिया। सब को सब कुछ नसीब नहीं होता पर मुझे हुआ। मुझे यह कबूल करने में तनिक संकोच नहीं होता कि उस माँ ने एक अबोध बालक का सर्वोमुखी विकास किया।

लिखने को तो बहुत कुछ है पर मेरे पास शब्दों का अभाव है। बस एक ही बात है कि माँ बस माँ होती है दूजों न कोई। नास्तिक मैं इसलिए हूँ कि मैं भगवान को नहीं मानता किन्तु आस्तिक इसलिए हूँ कि माँ ही मेरे लिए सर्वोपरि हैं जिसे मैंने देखा, सुना और समझा। जिसने मुझे शक्ति दी, प्रेरणा दी और जीने की कला सिखलाई।

बस कसक इतनी सी है कि उस माँ की अर्थी में कंधा नहीं लगा सका था, परंपरानुसार मुखाग्नि नहीं दे सका था। उन दिनों मैं साहिबगंज (अब झारखंड में) रेल-सेवा में था। वहाँ से उस समय कोई सीधी ट्रेन नहीं थी। पश्चाताप की आग में अपनी बदनसीबी को लेकर झुलसता रहा। उस समय भी माँ ने अपना चमत्कार दिखाया। उनके दिवंगत होने के लगभग एक-दो महीने बाद मालदा-टाऊन से फ़ैज़ाबाद होकर फरक्का एक्सप्रेस का संचालन शुरू हुआ जिससे मेरे जैसे दूसरे बेटे अपने माँ-बाप के जनाज़े में समय पर शामिल हो सकें। धन्य है माँ !

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