गुरुवार, 13 जनवरी 2011

सरकार तुम्हारी आंखों में...

सचमुच सरकार की आंखें बड़ी खूबसूरत है। बिल्लौरी जैसी आंखें-कंचे जैसी बड़ी-बड़ी आंखें-चमक ऐसी की हर किसी का दिल धड़क उठे। यही वजह है कि हम जैसे आशिक उसके दीवाने बने घूमते हैं। बात-बात में सरकार की आंखों में झांक कर देखने की हसरत बनी रहती है।
खासतौर से इस हाड़ कंपाने वाली ठंडक में उसकी आंखों में अंगारे दहकते हुए दिखाई देते हैं जिसे मैं फटी कथरी पर लेट और किसी मेहरबान द्वारा बाटें गए कम्बल में से एक अदद अपने ठंडे शरीर पर डाले आंखों के उन अंगारो को देख-देख कर बहुत तो नहीं थोड़ी गर्मी जरूर महसूस कर रहा हूँ। सोच रहा हूँ, अपने दायरे में कि सरकार तुम्हारी आँखों में दहकते हुए अंगारे काश सीधे मुझ पर पड़ते तो मेरे जैसे फटेहाल आशिक क्यों जगह-जगह अलाव जलाने के लिए चीखते-चिल्लाते?
अलाव की बात पर चुप्पी साधे हुए शासन-प्रशासन और विपक्षी  दलों की चुप्पी पर जब लोग उंगली उठाते हैं तो जी में आता है कि कहूं ताली दोनों हाथ से बजाई जाती है। मोहब्बत में तो कहा जाता है कि एक और एक मिलकर एक हो जाते हैं। सरकार की आंखें माशूक हैं और हम जैसे फटीचर फटेहाल आशिक। दोनों की आंखें जब चार होती हैं तो मोहब्बत शबाब पर पहुंचती है।
अपने भाई मीरसाहब जिनका आशिक मिज़ाजी में कभी डंका बजा करता था। या यूं समझिए कि उन्हें इस मामले में डाक्ट्रेट की मानद उपाधि हासिल थी। बड़े इत्मीनान से कई दिन की सूखी गिलौरियां मुंह में दबाये कने लगेअमाँ भाई जिसे देखो बस सरकार की आंखों में झांका करता है। पर खुद की  आंखें छुपाये रहता है। अरे भाई आंखें चार करोगे तब न मोहब्बत परवान चढ़ेगी। यह भी कोई बात हुई कि बात-बात पर सरकार की आंखो मे चोरी-चोरी चुपके-चुपके झाँकने की कोशिश कीजिये। अब इसी सिलसिले मे अलाव जलने-जलाने कि बात ले लीजिये। माना कि इस कड़ाके की ठंड में सरकार तुम्हारी आंखो में अंगारे दहक रहे हैं जिससे सत्ता के गलियारे मे शिद्दत की गर्मी महसूस की जा रही है। इसी तरह लोगो की चाहत होती है कि हमारे हर गली-चौराहों पर न्हीं दहकते अंगारों से अलाव जलते रहें। हसरत तो हसीन है पर आशिकों, अपनी-अपनी आंखो में वही तपिश पैदा क्यों नहीं करते हो?
मसलन हर मोहल्ले मे करीब तीन-चार सौ घर तो होते ही हैं। होलिका-दहन के लिए हम खुशी-खुशी मुहल्ले के लड़को को लकड़ी खरीदने के लिए पाँच-सात रुपये थमा देते हैं जिससे आठ दिनों तक आग जला करती है। ब इस ठिठुरती ठंड में जब सूरज ठंड से बचने के लिए छुपा रहता है तो क्यों नहीं घर पीछे सिर्फ एक रुपये देकर अलाव का इन्तजाम किया जा सकता है? सरकार की आँखों में झाँकने से क्या फायदा? वहां तो आज कल मोतियाबिन्द के सिवा कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा। मीर साहब की बात मेरे भी समझ मे सेंध लगा कर घुसने लगी है।
बात-बात मे सिर्फ उनकी आँखों मे झांकना ठीक नहीं है। मेरे ही मुहल्ले मे करीब पाँच-सात सौ घर हैं। घर पीछे अगर लोग एक-एक रुपैया बतौर चंदे के दे दें तो चौराहों पर गरीब-गुरबों के लिए अच्छे खासे अलावों की व्यवस्था हो सकती है। मोतियाबिंद वाली सरकार पर रहम करने के लिए खुद आगे बढ़ना चाहिए। इसी को कहते हैं सच्चा प्रेम, सच्ची मोहब्बत। समझ लीजिये गुटखा खा लिया या जाड़े भर होलिका जल रही है। इससे कई समस्याएँ हल हो सकती हैं। गर्मी तो गर्मी और जाड़ें की मार से भी मुक्ति। सूरज देवता भी समझेगें कि जाड़े कि मार से लड़ने वाली हमारी फौज में अभी काफी दम है।

(नोट: (13/01/2011 को स्थानीय हिन्दी दैनिक जनमोर्चा में प्रकाशित)

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