इस हैरत भरी दुनिया में सब मुमकिन है, नामुमकिन कुछ भी नहीं। ‘मिडास और मैजिक गोल्ड’ जैसी कहानियाँ तथा नेपाल के पारस पत्थरों के कमाल की
किवदंतिया भले हम-सब को कपोल-कल्पित लगे किन्तु हाथ कंगन को आरसी क्या...!
पुराने लोगों ने ‘देवकी नन्दन खत्री’ लिखित ‘चंद्रकांता-संतति’
ज़रूर पढ़ा होगा। ऐय्यारी और तिलिस्म का ऐसा
बेमिसाल उपन्यास कि पढ़ते-पढ़ते लोग चौंक उठते थे। खैर वह उस जमाने की बात थी। ज़माना
आया और चला गया। अब जो ज़माना बतौर बेश-क़ीमती नियामत ऊपरवाले ने हम सब को अता फरमाया
है, उसका तो जवाब नहीं। आज तो
ज़िंदा खड़ा वन पीस आदमी स्वर्गवासी और जो सचमुच स्वर्गवासी हो गया उसे भरी दुपहरिया
में भिंडी खरीदते देखा जाता है। यह किसी विज्ञान का कमाल नहीं बल्कि आदमी की फितरत,
ऐय्यारी या तिलिस्म का अजब कारनामा है। ऐसे में
यदि लोहे की सीढ़ी पर सोने का सिंहासन स्थापित हो जाता है तो आश्चर्य नहीं करना
चाहिए।
चश्मदीद गवाह है साहब अपनी सरज़मीं। इंटरवल के
पहले फिल्म चलाई गई बेश-क़ीमती पत्थरों से तामीर किए गए एक अज़ीमुश्शान बुतख़ाने की
लेकिन बदकिस्मती से रील कट गई तो इंटरवल कर दिया गया। अपनी पब्लिक के भी क्या
कहने...! उसे फिलिम देखने से मतलब, चाहे उसकी पाकेट
भले कट जा रही हो। बाद इंटरवल फिलिम फिर शुरू हुई, फ़र्क इतना रहा कि
पहले वाली तराशे गए पत्थरों पर आधारित थी, गीत गाया था पत्थरों ने किन्तु इस बार की फिल्म लोहे के
खदानों से शुरू हुई। किसी देशभक्त ने अरब सागर की गरजती उत्ताल तरंगों से जूझती एक
आदमक़द प्रतिमा देखी, बस बच्चों की तरह
मचल उठा। पथरीली गुफाओं से निकल कर लौह-कणों से खेलने लगा। एक टीले पर चढ़ कर
चिल्लाया “मितरों, हमें संकल्प लेना है कि हम देश भर से लोहा
इकट्ठा कर के इससे भी कई गुना ऊंची प्रतिमा लोहे की बनाएँगे। क्योंकि वह लौह-पुरुष
थे”। बात लोगों को जँची।
इतिहास भी गवाह है कि पत्थरों का युग आउट ऑफ डेट हो चुका है, उसके बाद तो लौह-युग ही अस्तित्व में आया था।
यहाँ सिर्फ समुंदरों मे ही लहरें नहीं उठती हैं बल्कि आमजन के दिलो-दिमाग में भी
ज्वार-भाटे आते जाते रहते हैं। ये वाली लहरें समुन्दर की लहरों से ज़्यादा खतरनाक
होती हैं, बिलकुल सुनामी की तरह। हर
तरफ से लोग थैला लटकाये मांगते नज़र आए ‘जो भी आप के पास लोहा हो इस ऐतिहासिक पुनीत कार्य के लिए दान कर दीजिये। हम उस
महान देशभक्त की प्रतिमा दुनिया की सबसे ऊंची बनाएँगे। इस नेक भावना को भला कौन
नहीं मानेगा? फिर अपने देश के
लोग तो अंधानुकरण करने में सबसे आगे हैं। वे इतने भोले हैं कि भूल जाते हैं उनके
साथ अतीत में क्या हुआ? आगे क्या होने
वाला है? पत्थर मिला तो पूजने लगे
और लोहा मिला तो पारस की तलाश में मारे-मारे फिरने लगे कि किस तरह सोना बन जाए?
...और मैं अपने दायरे की खिड़की से बाहर लोहे की
लटकती सीढ़ी पर झूलता हुआ स्वर्ण-जटित सिंहासन देख कर ‘चंद्रकांता-संतति’ के तिलस्मी-सीन को याद कर रहा हूँ। हैरत हो रही है कि अब न वहाँ लोहे का
नामोंनिशान है और न किसी लौह-पुरुष की आसमान छूती प्रतिमा बनाने का जज़्बा।
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