गुरुवार, 2 सितंबर 2010

भेड़ियों के बदलते रूप

खुदा की इस मख़लूक़ में जितना धँसने की कोशिश कीजिये उतने ही अजूबी चीजें देखने को मिलती हैं। जलचर, थलचर और नभचर की अजूबी सीन देखकर मियां हैरत होती है कि अमां वहाँ कितना बड़ा वर्कशॉप और साँचों का अम्बार लगा है जहां तरह-तरह के प्रोडक्शन होते रहते हैं। सब एक दूसरे से बिल्कुल मुख्तलिफ़।
खैर उन सब बातों को जितना सोचिएगा उतनी ही दिमाग की नसें उलझती जाएंगी। रहना है हमें अपने तंग दायरे में ही और सुनना है एक से बढ़ कर एक खौफनाक आवाज़ें। अभी कुछ दिन पहले अपने यहाँ बाघों के आतंक से लोगों ने बाहर निकलना छोड़ दिया था। उनके स्पेशलिस्ट भी डांव-डांव तलाशते रहे। उनके साथ भूखे-नंगे गाँव वाले भी हाँका लगाते रहे। खुदा का शुक्र किसी तरह उनसे निजात मिली। ऐसा लगा जैसे किसी अमेरिका को सद्दाम से मुक्ति मिली या भारत को फिरंगी हुकूमत से आज़ादी मिल गई। चलिये बाघों का ज़माना गया। एक-दो जो बचे हैं वे कभी-कभी भटक जाते हैं कुछ को तो सरकस वालों ने अपने फ्लाप-शो के लिए पाल रखा है।
इधर भेड़ियों की चर्चा खूब चल पड़ी है। भेड़िए बाघों से ज्यादा भयानक साबित हो रहे हैं। जंगलात के हाकिम बताते हैं कि जब जंगलों की जगह संगमरमरी जंगलात फैलते जा रहे हैं तो फिर ये भेड़िये जाएँ तो कहां जाएँ? ख्वामखाह अपनी माँदों से निकल कर शहरों की खुशनुमा सड़कों पर मटरगश्ती करते हुए अपने शिकार की तलाश करेंगे ही। बचपन में सुना करता था कि एक भेड़िया किसी बच्चे को उठा ले गया। उठाने के बाद सिफ़त की बात यह होती थी की उस बच्चे को अपना या अपने गिरोह वाले भेड़ियों के शिकार के वास्ते नहीं छेड़ते थे बल्कि बाकायदा अपने ढंग से पाला करते थे। अपने मीरसाहब खुद बताते हैं कि एक बार वह किसी बियाबान जंगल में शिकार पर गए थे। मीरसाहब और उनके शौकीन मिजाज़ साथियों की फायरिंग सुनकर भेड़िये तो भाग निकले मगर बच्चा वहीं पड़ा रह गया क्योंकि वह इंसानी आदत भूल चुका था। भेड़िया-बालक भेड़ियों की तरह हरकतें करता था। आखिर मीरसाहब उसे अपने साथ ले आए और किसी चिड़ियाघर वालों के सुपुर्द कर दिया। वहाँ उसका इलाज़ चलता रहा। लेकिन इस बदलते युग में भेड़ियों ने अपनी चाल बादल दी है। अब बाघों से ज्यादा खूंखार साबित हो रहे हैं। कहीं ये नक्सलाइटों के पालतू और शिकारी कुत्ते बन गये हैं तो कहीं आतंकवादियों के लिए गोपनीय फाइलों को डिस्पैच करने का काम करते हैं। वह ज़माना बीत गया जब भेड़िये जंगलों में छुपकर अपने शिकार पर हमला करते थे। अब तो उनकी पहुँच न जाने कहाँ-कहाँ तक हुयी जा रही है। रिर्च करने वालों का कहना है कि पहले भेड़िये बच्चों को अपने ढंग में ढाल लिया करते थे लेकिन अब वह खुद सफेदपोशों के रंग में ढलते दिखाई देते हैं। यह कहना बेजा नहीं है की माहौल का बहुत असर पड़ता हैं। जीव वैज्ञानिकों की जुबानी अब कुत्ते को बिल्ली या बिल्ली को शेर तो बनाया नहीं जा सकता है मगर उनकी आदतें जरूर बदली जा सकती हैं। मसलन कुत्तों को ही ले लीजिये। जिस परिवार में रहता है उस परिवार के सदस्यों की आदत अपना लेता है। इसी तरह राजनैतिक के जंगलात में पला-बढ़ा भेड़िया उनकी हर आदत को कैच कर लेता है। वह मांस-खून और दौलत के लिए दरिंदा बनने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ता है। एक तरफ लोग भूखे-नंगे रहते हुए रोज रात में सिर्फ पानी पीकर सो जाते हैं वहीं दूसरी तरफ भेड़ियों के बीच रहने वाले कड़कड़ाते नोटों की हड्डियाँ चबाने और मांस के लोथड़े चट करने के लिए एक जुट हो जाते हैं। बाढ़ आये या सूखा पड़े इन भेड़ियों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला हैं।


नोट: (02/9/2010 को स्थानीय हिन्दी दैनिक जनमोर्चा में प्रकाशित)

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